Wednesday 17 January 2018

Sitting By The Side, Watching


One day Buddha is passing by a forest.
It is a hot summer day and he is feeling very thirsty. He says to Ananda, his chief disciple, “Ananda, you go back. Just three, four miles back we passed a small stream of water. You bring a little water — take my begging bowl.
I am feeling very thirsty and tired.” He had become old.

Ananda goes back, but by the time he reaches the stream, a few bullock carts have just passed through the stream and they have made the whole stream muddy.
Dead leaves which had settled into the bed have risen up; it is no longer possible to drink this water — it is too dirty.
He comes back empty-handed, and he says, “You will have to wait a little. I will go ahead. I have heard that just two, three miles ahead there is a big river. I will bring water from there.”

But Buddha insists.
He says, “You go back and bring water from the same stream.”

Ananda could not understand the insistence, but if the master says so, the disciple has to follow.
Seeing the absurdity of it — that again he will have to walk three, four miles, and he knows that water is not worth drinking — he goes.

When he is going, Buddha says, “And don’t come back if the water is still dirty. If it is dirty, you simply sit on the bank silently.
Don’t do anything, don’t get into the stream. Sit on the bank silently and watch. Sooner or later the water will be clear again, and then you fill the bowl and come back.”

Ananda goes there. Buddha is right: the water is almost clear, the leaves have moved, the dust has settled.
But it is not absolutely clear yet, so he sits on the bank just watching the river flow by. Slowly slowly, it becomes crystal-clear. Then he comes dancing. Then he understands why Buddha was so insistent.
There was a certain message in it for him, and he understood the message.
He gave the water to Buddha, and he thanked Buddha, touched his feet.

Buddha says, “What are you doing? I should thank you that you have brought water for me.”

Ananda says, “Now I can understand. First I was angry; I didn’t show it, but I was angry because it was absurd to go back. But now I understand the message. This is what I actually needed in this moment.

The same is the case with my mind — sitting on the bank of that small stream, I became aware that the same is the case with my mind. If I jump into the stream I will make it dirty again. If I jump into the mind more noise is created, more problems start coming up, surfacing. Sitting by the side I learned the technique.

“Now I will be sitting by the side of my mind too, watching it with all its dirtiness and problems and old leaves and hurts and wounds, memories, desires. Unconcerned I will sit on the bank and wait for the moment when everything is clear.”

And it happens on its own accord, because the moment you sit on the bank of your mind you are no longer giving energy to it.

"From Budhhacharita"

💓 You Have STOLEN My Heart

There Is A Zen anecdote about a burglar who entered the house of a Zen master to rob him.

The master not only made no move to stop him, but aided him in his search, suggesting things he might take.

The burglar, wondering what kind of man this was who would help himself to be robbed, took the possessions, but was hailed by the Zen master as he made off. The master said the thief should thank him — which he did, leaving more mystified than ever!

In due course the thief was captured, but pardoned when the Zen master, called as a witness, said he had given the things to the man and had been duly thanked….

So the thief was released. He followed the master and the master said ‘Where are you going? If you are coming to take something, please give me a few days!’

The thief says ‘I am coming forever! You have robbed me — you have stolen my heart.’

So it is not that a man of trust cannot be deceived, but he will not take it as deception. His compassion will remain the same, his love will flow the same way.

Trust is the greatest quality. When a man is in trust, trust-full, he is religious.

Monday 8 January 2018

Asinine(Stupid) नाटक

ACT-1
(पर्दा उठता है.......दरभंगा शहर का BSDK मोहल्ला)

Asinine चौधरी को सब Stupid समझते हैं। कारण कि वो हमेशा Abject/Wretched लोगों को Abase/Humiliate करने के Aberrant/Deviant कार्य में लगे रहते हैं। Asinine भाई न तो इन हरकतों को Abate करते हैं न ही Abbreviate, तो Abdicate/Abjure/Abnegate करना तो दूर की बात है।

बिना किसी Abash(Embarras)ment के बेशर्म Asinine Full to रूप से Abject लोगों को Abase/Humiliate किये रहते हैं।
इस कार्य में Asinine भाई कभी भी Abeyance/Delay नहीं करते और ऐसे कृत्य में उनका Abet(Accomplice In Crime) बनता है Dr. Ablution(Washing)ton.

ACT-2
(पर्दा गिड़ता(Declivate) है......शहर का हटेला कॉलोनी......पर्दा उठता(Acclivate) है...)

जहाँ तक Dr. Ablution-ton की बात है, तो वो तो अपने Abode/House में अपना Abnegation(Self Denial) करने वाले लोग को ही Abject/Wretched मानकर ऐसे लोगों से Abhor/Abominate/Loathe/Hate/Detest करते हैं।

(Dr. Ablution-ton का घर......श्री Asinine का खिडकी से प्रवेश..…..सोफे पर बैठ कर दोनों किसी योजना पर चर्चा कर रहे)

अबके नववर्ष में Sri Asinine और Dr. Ablution-ton ने मिलकर एक Abstract/Theoretical योजना तैयार की है।

ACT-3
(....गहमागहमी भरा माहौल.......दरभंगा टावर का दृश्य .......सभी ऐसे भाग रहे हैं जैसे सबकी फटी पड़ी हो....)

दोनों टावर चौक पर Abject/Wretched लोगों का सामूहिक रूप से Abrogate/Abolish/Repeal करने तथा उनका कान का Abscission(Cut Off) करने को एकत्रित होते हैं।
कान Abscission(Cut Off) कांड को Abusive(Physically Harmful) रूप से अंजाम देने के पश्चात दोनों वहां से समस्तीपुर को Abscond(फरार) हो गए।
हालाँकि Asinine चौधरी और Dr. Ablution-ton कटे हुए कान एक Gastronome/Epicure के माफ़िक खा सकते थे पर चूँकि दोनों घोर Abstemious थे तो कटे कान खाने से उन्होंने Abstain/Refrain/Abstinence किया और योजना को Successful न की Abortive बना कर Abscond हो गए।

ACT-4
(खिसकेला गाँव.......किसानों की आवाज......हरयाली....Paddy रोपनी…..)

इस Abstruse/Profound/Obscure कार्य के पश्चात दोनों और अधिक Amiable/Amicable/Genial/Cordial/Comrade/Friendly हो गए। दरभंगा समस्तीपुर के Abut/Adjoin/Border पर एक खिसकेले गाँव के Climate में उन्होंने खुद को Acclimate तथा Accommodate कर लिया। ग्रामीणों ने भी उनको Acclaim/Applaud/Accolade/Praise किया और एक वक़्त तो ऐसा भी आया की श्री Asinine और Dr. Ablution-ton ने गाँव वालों से Accord/Agreement किया कि-

"तुम हमें सोने के लिए Acidulous(खट्टा)-iya(इया) दो हम तुम्हें Abject/Wretched लोगों का कान Abscission करने का Accoutre(Equip)ment देंगे।"

इस पर सरपंच सबसे Accost आके इस प्रस्ताव पर Accede कर गया। मने जीवन के पहाड़ पर उनका Acclivity जो था सो Accretion/Growth पर था।
तभी किसी नेता की नजर लगी और,

ACT-5
(चारों ओर Calm/Soothe/Pacify करने वाला सन्नाटा.......रात के 01:23:47 AM....पर्दा उठता है)

दोनों Acidulous-इया पर सो रहे थे कि तभी जमीन फटा और दोनों Abysmal/Bottomless(अथाह) सी Abyss खाई में जमीन के भीतर सदा के लिए समा गए। जाते जाते अपनी Acerbity/Bitterness यानी Acetic/Vinegar वाली Property गाँव वालों को सिखा गए।

गाँव वालों ने Oath लिया-

।।Asinine चौधरी और Dr. Ablution-ton अमर रहें...अमर रहें।।
।।Abject /Wretched लोगों का कान Abscission चालू रहे....चालू रहे।।

(पर्दा गिड़ता है......नेपथ्य से एक आवाज आती है.....चल बे)

                               -Abhinav KHC

NOTE : साथ में Dictionary रख के नाटक पढ़ें।
【You have learnt 75+ new words from this Stupid(           ) नाटक।】

Sunday 12 March 2017

Relax Boss!

एक प्रोफ़ेसर ने अपने हाथ में पानी से भरा एक glass पकड़ते  हुए class शुरू की।
उन्होंने उसे ऊपर उठा कर सभी students को दिखाया और पूछा , ” आपके हिसाब से glass का वज़न कितना होगा?”

’50gm….100gm…125gm’…छात्रों ने उत्तर दिया।

” जब तक मैं इसका वज़न ना कर लूँ  मुझे इसका सही वज़न नहीं बता सकता”। प्रोफ़ेसर ने कहा। ” पर मेरा सवाल है:

यदि मैं इस ग्लास को थोड़ी देर तक  इसी तरह उठा कर पकडे रहूँ तो क्या होगा ?”

‘कुछ नहीं’ …छात्रों ने कहा।

‘अच्छा , अगर मैं इसे मैं इसी तरह एक घंटे तक उठाये रहूँ तो क्या होगा ?” , प्रोफ़ेसर ने पूछा।

‘आपका हाथ दर्द होने लगेगा’, एक छात्र ने कहा।

” तुम सही हो, अच्छा अगर मैं इसे इसी तरह पूरे दिन उठाये रहूँ तो का होगा?”

” आपका हाथ सुन्न हो सकता है, आपके muscle में भारी तनाव आ सकता है , लकवा मार सकता है और पक्का आपको hospital जाना पड़ सकता है”….किसी छात्र ने कहा, और बाकी सभी हंस पड़े…

“बहुत अच्छा , पर क्या इस दौरान glass का वज़न बदला?” प्रोफ़ेसर ने पूछा।

उत्तर आया ..”नहीं”

” तब भला हाथ में दर्द और मांशपेशियों में तनाव क्यों आया?”

Students अचरज में पड़ गए।

फिर प्रोफ़ेसर ने पूछा ” अब दर्द से निजात पाने के लिए मैं क्या करूँ?”

” ग्लास को नीचे रख दीजिये! एक छात्र ने कहा।

” बिलकुल सही!” प्रोफ़ेसर ने कहा.

Life की problems भी कुछ इसी तरह होती हैं।
इन्हें कुछ देर तक अपने दिमाग में रखिये और लगेगा की सब कुछ ठीक है।
उनके बारे में ज्यदा देर सोचिये और आपको पीड़ा होने लगेगी।
और इन्हें और भी देर तक अपने दिमाग में रखिये और ये आपको paralyze करने लगेंगी।

अपने जीवन में आने वाली चुनौतियों और समस्याओं के बारे में सोचना ज़रूरी है,
पर उससे भी ज्यादा ज़रूरी है दिन के अंत में सोने जाने से पहले उन्हें नीचे रखना।

इस तरह से, आप stressed नहीं रहेंगे, आप हर रोज़ मजबूती और ताजगी के साथ उठेंगे और सामने आने वाली किसी भी चुनौती का सामना कर सकेंगे।

आपका जीवन


एक जाने माने वक्ता ने हाथ में पांच सौ का नोट लहराते हुए अपनी सेमीनार शुरू की।
हॉल में बैठे सैकड़ों लोगों से उसने पूछा ,

 ये पांच सौ का नोट कौन लेना चाहता है?”
हाथ उठने शुरू हो गए।

फिर उसने कहा ,” मैं इस नोट को आपमें से किसी एक को दूंगा पर  उससे पहले मुझे ये कर लेने दीजिये।” और उसने नोट को अपनी मुट्ठी में चिमोड़ना शुरू कर दिया।
और  फिर उसने पूछा,
” कौन है जो अब भी यह नोट लेना चाहता है?
अभी भी लोगों के हाथ उठने शुरू हो गए.

“अच्छा”
उसने कहा,” अगर मैं ये कर दूं ? ” और उसने नोट को नीचे गिराकर पैरों से कुचलना शुरू कर दिया।
उसने नोट उठाई , वह बिल्कुल चिमुड़ी और गन्दी हो गयी थी।

” क्या अभी भी कोई है जो इसे लेना चाहता है?
और एक  बार  फिर हाथ उठने शुरू हो गए।

मित्रों , आप लोगों ने आज एक बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ सीखा है।
मैंने इस नोट के साथ इतना कुछ किया पर फिर भी आप इसे लेना चाहते थे क्योंकि ये सब होने के बावजूद नोट की कीमत घटी नहीं,उसका मूल्य अभी भी 500 था।

जीवन में कई बार हम गिरते हैं, हारते हैं, हमारे लिए हुए निर्णय हमें मिटटी में मिला देते हैं।
हमें ऐसा लगने लगता है कि हमारी कोई कीमत नहीं है। लेकिन आपके साथ चाहे जो हुआ हो या भविष्य में जो हो जाए , आपका मूल्य कम नहीं होता।
कभी भी बीते हुए कल की निराशा को आने वाले कल के सपनो को बर्बाद मत करने दीजिये।
याद रखिये आपके पास जो सबसे कीमती चीज है,

"वो है आपका जीवन।